English Class 12th Chapter 9 Snake English Class 12th Chapter 9 explanation

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SNAKE
D.H. Lawrence

DAVID HERBERT LAWRENCE (1885-1930), poet, novelist, short story writer and essayist, grew up amid the strife between his genteel and educated mother and his coarse miner father. As a youth in the Nottinghamshire mining village of Eastwood, Lawrence resented the rough ways of his drunken father and adopted his mother’s refined values as his own. However, as he grew in maturity as a writer, he rejected the gentility his mother represented and began to see his father earthiness as a virtue. He wrote of primitive and natural pas sions, trying to show instinctive forces in mas that might bring happiness. In his writings he emerged as the champion of in stinct. His important works include A Collection of Poems (1909), The White Peacock (1911), The Trespasser (1912), Sons and Lovers (1913), The Rainbow (1915), Plumed Serpent (1926), Lady Chatterley’s Lover (1926). In the present poem ‘Snake’, Lawrence exalts the values of primitive life and denounces the shams and artificialities of modern civilized life.

डेविड हर्बर्ट लॉरेंस (1855-1930), कवि, उपन्यासकार, लघु कहानियों के लेखक और निबंधकार, अपनी सभ्य तथा शिक्षित माँ और खानों में काम करने वाले अपनी असभ्य पिता के विवाद के बीच बड़े हुए। एक युवा के रूप में इस्टवुड के गाँव के नॉटिंघमशायर खनन में, लॉरेंस ने अपनी शराबी पिता के असभ्य, रवैये का विरोध किया और अपने माँ के शुद्ध (अच्छा) गुणों को अपनाया।

हालाँकि एक लेखक के रूप में, जैसे-जैसे परिपक्व हुए, उसने अपनी माँ की सज्जनता को अस्वीकार किया और अपने पिता को सांसारिक नैतिक गुणों के रूप में देखना शुरू कर दिया। उन्होंने प्राचीन और प्राकृतिक जोश के बारे में लिखा, जो मनुष्यं में स्वाभाविक शक्ति को दिखाने का प्रयास किया, जो खुशी ला सकती है। उनकी रचनाओ में, वह स्वमभाविकता के चैंपियन के रूप में उभरे।

उनकी प्रमुख रचनाएँ- ए कलेक्शवन ऑफ पोएम्स (1990) ,द व्हाइट पिकॉक (1911), दे ट्रेसपासर (1912), सन्स एण्ड लवर्स (1913), द रैनबो (1915), प्लम्ड सरपेंट (1926), लेडी चैटरलीज लवर (1926) शामिल है।

प्रस्तुत कविता ‘स्नेक‘ में लॉरेंस प्राचीन जीवन के मूल्यों की सराहना करते हैं और आधुनिक सभ्य जीवन की बनावटीपन और दिखावापन की उपेक्षा (निंदा) प्रकट करते हैं।

SNAKE

A snake came to my water-trough:
On a hot, hot day, and I in Pyjamas for the heat,
To drink there.

In the deep, strange scented shade of the great dark carobtree
I came down the steps with my pitcher
And must wait, must stand and wait, for there he was at the trough before me.

He reached down from a fissure in the earth-wall in the gloom
And trailed his yellow brown slackness soft-bellied down, over the
edge of the stone trough
And rested his throat upon the stone bottom,

And where the water had dripped from the tap, in a small clearness,
He sipped with his straight mouth,
Softly drank though his straight gums, into his slack long body,
Silently.

Someone was before me at my water-trough,
And I, like a second comer, waiting.

He lifted his head from his drinking, as cattle do,
And looked at me vaguely, as drinking cattle do,
And flickered his two-forked tongue from his lips, and mused a moment,
And stooped and drank a little more,
Being earth-brown, earth-golden from the burning bowels of the earth
On the day of Sicilian July with Etna smoking.

The voice of my education said to me
He must be killed,
For in Sicily the black, black snakes are innocent, the gold are venomous

And voices in me said, If you were a man
You would take a stick and break him now, and finish him off.

But must I confess how I liked him,
How glad I was he had come like a guest in quiet, to drink at my water-trough
And depart peaceful, pacified, and thankless,
Into the burning bowels of this earth?

Was it cowardice, that I dared not kill him?
Was it perversity, that I longed to talk to him?
Was it humility, to feel so honoured?
I felt so honoured.

And yet those voices: If you were not afraid, you would kill him!
And truly I was afraid, I was most afraid,
But even so, honoured still more
That he should seek my hospitality
From out the dark door of the secret earth.

He drank enough
And lifted his head, dreamily, as one who has drunken,
And flickered his tongue like a forked night on the air, so black,
Seeming to lick his lips,
And looked around like a god, unseeing, into the air,
And slowly turned his head,
And slowly, very slowly, as if thrice adream,
Proceeded to draw his slow length curving round
And climb again the broken bank of my wall-face.

And as he put his head into that dreadful hole,
And as he slowly drew up, snake-easing his shoulders, and entered farther,
A sort of horror, a sort of protest against his withdrawing into that horrid black hole.
Deliberately going into the blackness, and slowly drawing himself after.
Overcame me now his back was turned.

I looked round, I put down my pitcher,
I picked up a clumsy log
And threw it at the water trough with a clatter.

I think it did not hit him,
But suddenly that part of him that was left behind
convulsed in undignified haste.
Writhed like lightening, and was gone
Into the black hole, the earth lipped fissure in the wall front,
At which, in the intense still noon, I stared with fascination.

And immediately I regretted it.
I thought how paltry, how vulgar, what a mean act!
I despised myself and the voices of my accursed human education.

And I thought of the albatross,
And I wished he would come back, my snake.

For he seemed to me again like a king,
Like a king in exile, uncrowned in the underworld,
Now due to be crowned again.

And so, I missed my chance with one of the lords Of life.
And I have something to expiate: A pettiness.

मेरे पानी के टब के पास एक साँप आया।
बहुत ही गर्मी का दिन था और मैं गर्मी की वजह से पतलुन में था। वहाँ पानी पीने के लिए।
ग्रेट डार्क कैरबट्री (एक प्रकार का यूरोपीय पेड़) की गहरी और विचित्र सुगंधित छाया में।

मैं अपने घड़ा के साथ सीढ़ीयों से नीचे आया।
और मैं वहाँ खड़ा रहा और प्रतिक्षा करता रहा, क्योंकि वह टब पर मुझसे पहले आया था।

वह उदास होकर बिना आशा की भावना में मिट्टी की दिवार से नीचे पहुँचा।
और अपने पिले भूरे रंग की ढिली पेट के पिछे खींचा।

और पत्थर के टब के किनारे पर चढ़ गया।
और अपने गला को पत्थर की पेंदी के ऊपर रखकर विश्राम किया।
और जहाँ पानी नल से बुँद-बुँद कर बहुत थोड़ी मात्रा में गिर रहा था। वह अपने सिधे मुँह से पानी पिया। कोमलापूर्वक, अपने सिधे मुख से पिया, तथा शांति से अपने सुस्त लंबे शरीर के अंदर फैलाया।
कोई एक मेरे (वाटर) पानी के टब पर मुझसे पहले था और मैं दूसरे आंगंतुक के के जैसा इंतजार कर रहा था। वह अपना सिर पानी पिते ही ऐसे उठाया, जैसे एक मवेशी उठाता है। और मेरी और थोड़ देखा (स्पष्ट रूप से नहीं), जैसे पानी पीते हुए मवेशी करते हैं। और अपने दो कांटेदार जीभ अपने ओंठो से अंदर-बाहर किया और कुछ पल के लिए सोचा। और झूका तथा थोड़ा और पानी पिया।
भूरी-भूरी होने से, पृथ्वी के जलती हुई अंदरूनी हिस्सा से धरती सुनहरी,
एटना ज्वालामुखी के धधकने के कारण पृथ्वी के जलती हुई सिसली में जुलाई के दिनों में अंदररूनी हिस्से धरती को सुनहरी तथा भूरे रंग की बना दी थी।
अर्थात कवि के कहने का भाव है कि सिसली
(इटली का प्रांत) में जुलाई के महिने में एटना
ज्वालामुखी के विस्फोट से धरती के नीचे से
धधकती हुए चीजें बाहर आ रही थी। अर्थात
बहुत गर्मी पड़ रहा था।

मेरी नैतीक शिक्षा की आवाज ने मुझ से कहा,
उसे अवश्य ही मार देना चाहिए,
क्योंकि सिसली में काले रंग के साँप निर्दोष होते हैं।
सुनहरे रंग का साँप जहरीला होता है।

और मेरे अंदर की आवाज (अन्तरात्मा) ने मुझ से कहा,
यदी तुम एक मानव हो, तो तुम एक छड़ी लों,
तथा अभी उसपर तोड़ दो और उसका अंत
कर दो।

लेकिन मुझे अवश्य यह दोष स्वीकार है कि मैं उसें
कितना पसंद करता था।
मैं कितना खुश था जब वह शांतिपूर्वक में वाटर-टब
पर पानी पिने के लिए एक मेहमान के जैसा आया
था। और शांतिपूर्वक, संतुष्ट होकर तथा धन्यावाद रहित
चला जाएगा।
इस धरती के जलती हुई अंदर के हिस्से में ?

क्या यह कायाता थी, कि मझे उसे मारने की साहस नही हुई?
क्या यह अनैतिक सोंच (गलत) थी, कि मुझे उससे बात करने की लालायित था ?
क्या इतना सम्मानित (महसुस करना) अनुभव करना
विनम्रता थी ?

मैं बहुत सम्मानित महसुस किया।
और अबतक वो आवाजें;
यदि तुम नही डरे हो, तो तुम उसे मार दो।

और यह सत्य है मैं डर गया था मैं बहुत ही डर गया था। लेकिन फिर भी अवतक और अधिक सम्मानित महसुस कर रहा था।
क्योंकि वह मेरी आदर-भाव (गर्मजोशी वाला स्वागत) गुप्त पृथ्वी के अंधेरी दरवाजा से प्राप्त करने के लिए आया था।
अर्थात
क्योंकि वह गुप्त पृथ्वी के अंधेरी दरवाजा से मेरी आतिथ्य (आदर-भाव) प्राप्त करने के लिए आया था।
वह पर्याप्त पी लिया, वह अपना सर धीरे से उठाया, जैसा वह पी चूका हो, और हवा में बहुत काले अपने जीभ को लहराया।

ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे अपने ओंठ को जीभ से चाट रहा हो और चारो ओर ईश्वर की तरह देखा। हवा में देखा।
और धीरे-धीरे अपना सर घूमाया, और बहुत ही धीरे से, मानो तीन बार सपना देखा हो।
अपनी लंबी शरीर को गोल वक्र खींचते हुए आगे बढ़ा और मेरी दिवार के टूटे किनारे से फिर चढ़ गया।
और जैसे कि वह अपना सिर उस (भयानक) खतरनाक छेद में घुसाया।
और वह धीरे-धीरे बढ़ा, अपनी कंधों के आराम से आगे बढ़ा कर (छेद में) प्रवेश किया।

एक तरह का आतंक, एक तरह का विरोध के खिलाफ उस खतरनाक काले छेद में अपने आप को ले जा रहा था।
वह जानबुझकर अंधेरे में जा रहा था, और धीरे-धीरे स्वयं को खींच रहा था।
मुझ पर विजय प्राप्त करते हुए, अब उसका पीठ मुड़ गया था।

मैं चारों तरफ देखा, मैं अपनी मटका को नीचे रख दिया।
मैं एक बेढ़ंगा लकड़ी का टूकड़ा उठाया।
और ऊँचे स्वर से वाटर टब पर इसे फेंका।

मैंने सोचा मैं उसे नहीं मारा।
लेकिन अचानक, उसका जो भाग पिछे छूट गया था, जल्दबाजी में अचानक काँप गया।

बिजली की तरह छटपटाया और काली गुफा में प्रवेश कर गया। पृथ्वी की फटी दिवार में जो छेद था, उसमें चला गया।
जिस पर, दोपहर तक अधिक गहनता से, मैं मजबुत आकर्षण (अच्छा नजर) से देखता रहा।
और मुझे तुरंत इसका पछतावा हुआ। मैंने सोचा कितना घटिया, कितना अश्लील, हरकत है यह।
मैं स्वंय घृणित महसूस किया और अपनी नैतिकता (शिक्षा) को कोसने लगा।

और मैं अल्बाट्रोस (एक विशाल समुद्री पक्षी) के बारे में सोचा।
और मैनें कामना किया कि मेरा साँप वापस आ जाए।

क्योंकि वह फिर से मुझे एक राजा के जैसा प्रतीत होने लगा।
निर्वासित राजा की तरह, अंडरवल्ड में
बेताज बादशाह की तरह।
अब फिर से ताज पहनाया जाना है।

और इसलिए, मैने जीवन के राजाओं में एक के साथ
अपनी मौका गवां दिया। और मैं (एक छोटा और बिना जरूरी वाला) काम प्रायश्चित के लिए प्रायश्ति करना है।

Snake Summary

The poem ‘Snake’ has been composed by D. H. Lawrence. In this poem he tells about a snake.

प्रस्‍तुत कविता साँप को डी. एच. लौरेंस के द्वारा संकलित किया गया है। इस कविता में वह एक साँप के बारे में कहते हैं।

One day, the poet felt thirsty. He came out to drink water. He saw a snake coming to drink water there. The snake looked good, silent and peaceful. See its politeness, the poet did not become afraid at all. But after some time he decided to kill it.

एक दिन कवि को बहुत प्‍यास लगी थीफ वह पानी पीने के लिए बाहर निकले। उसने एक साँप देखा, जो वहाँ पानी पीने के लिए आया था। साँप अच्‍छा और सांत  दिख रहा था। उसके विनम्रता को देखकर, कवि थोड़ा भी नहीं डरे। लेकिन कुछ समय बाद उसने इसे मार देने का निर्णय लिया।

He picked up stick and hit the snake. It felt pain. But it moved its body and went into the hole of the ground.

उसने एक छड़ी उठाया और साँप को मारा। उसे दर्द हुआ, लेकिन उसने अपने शरीर को खींच लिया और जमीन के अंदर के होल (छेद) में घुस गया।

Now the poet did not want to kill. He began to repent for his deeds as it looked simple and innocent. He wanted to see again.

अब कवि उसे नहीं मारना चाहते थे। उसे अपने किए पर पाश्‍चाताप होने लगी। वह उसे साधारण और निर्दोष दिखने लगा। वह उसे फिर देखना चाहते थे।

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